Natasha

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लेखनी कहानी -27-Jan-2023

निष्काम की कामना


सभी भाँति समझाने, डराने, धमकाने से लेकर प्रलोभन देने तक के उपाय अपना लेने के बाद भी जब प्रह्लाद ने भगवद्भक्ति का आश्रय नहीं छोड़ा तो हिरण्यकशिपु क्रोधाविष्ट होकर बोला, ‘‘रे दुष्ट! इस कुल में विष्णु का नाम लेने वाला कोई नहीं हुआ है और तुम ईश्वर- ईश्वर की रट लगाकर कुल मर्यादा भंग किये दे रहे हो। यह अक्षम्य अपराध है।’’

‘‘श्रेष्ठ कर्म करने से कुल मर्यादा नहीं टूटती तात्!’’प्रह्लाद ने शान्त गम्भीर वाणी में अपने पिता को समझाना चाहा, उन्हें कभी भी कोई भी नमन करे, उससे कुल का गौरव ही बढ़ता है।

उन्मत्त हिरण्यकशिपु की क्रोधाग्नि में प्रह्लाद के इन वचनों ने घी का काम किया और वह गरजता हुआ प्रह्लाद की ओर दौड़ा, मेरी सीख को न समझकर मुझे ही उपदेश देने वाले दुष्ट! तू ऐसे नही मानेगा। तुझ जैसे कुल कलंकी का तो कुल में न होना ही अच्छा।

हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मारने के लिये झपटा। आवेश में सन्तुलन न रह सका और जो घूँसा प्रह्लाद पर वार करने के लिये उठा था, वह उस खम्भे पर पड़ा जिसके सहारे प्रह्लाद खड़ा था। खम्भा टूट गया और उसी खम्बे से प्रकट हुए नृसिंह भगवान् आधा नर और आधा सिंह का रूप धारण किये। उन्होंने हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपने तीक्ष्ण नखों से उसका पेट फाड़ डाला।


उस समय भगवान नृसिंह का रौद्र रूप देखकर उपस्थित देवगण तक काँप उठे। सबने अलग- अलग स्तुति की परन्तु किसी का कोई परिणाम नहीं हुआ। देवगण सोचने लगे कि यदि प्रभु का क्रोध शान्त नहीं हुआ। तो अनर्थ हो जायेगा। उन्होंने भगवती लक्ष्मी को भेजा किन्तु लक्ष्मी जी भी वह विकराल रूप देखकर भयभीत हो लौट आईं। अन्त में ब्रह्माजी ने प्रह्लाद से कहा,‘‘बेटा तुम्हीं समीप जाकर उनका क्रोध शान्त करो।’’

प्रह्लाद सहज भाव से प्रभु के सम्मुख गये और दण्डवत् प्रणिपात करके उनके सामने लेट गये। भगवान् नृसिंह ने अपने भक्त को सामने देखकर कहा, ‘‘वत्स! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो वही वरदान माँग लो।’’

‘‘प्रभु! मेरी क्या इच्छा हो सकती है?’’ प्रह्लाद ने कहा- मुझे कुछ नहीं चाहिये। भगवन्! मुझे कुछ नहीं चाहिये। जो सेवक कुछ पाने की आशा से अपने स्वामी की सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं है। आप तो परम उदार हैं, मेरे स्वामी हैं और मैं आपका आश्रित- अनुचर। यदि आप कुछ देना ही चाहते हैं तो यह वरदान दें कि मेरे मन में कभी कोई कामना ही उत्पन्न न हो।

‘एवमस्तु’, भगवान् ने कहा और पुनः आग्रह किया फिर भी प्रह्लाद कुछ तो अपने लिये माँग लो।

प्रह्लाद ने सोचा, प्रभु जब बार- बार मुझ से माँगने के लिये कहते हैं तो अवश्य ही मेरे मन में कोई कामना है। बहुत सोच- विचार करने, मनःमन्थन करने के बाद भी जब उन्हें लगा कि कुछ भी पाने की आकांक्षा नहीं है तो वह बोले, ‘‘नाथ! मेरे पिता ने आपकी बहुत निन्दा की है और आस्तिकजनों को बहुत कष्ट दिया है। वे घोर पातकी रहे हैं। मैं यही चाहता हूँ कि वे इन पापों से छूटकर पवित्र हो जायें।’’

भगवान् नृसिंह ने प्रह्लाद को गद्गद् होकर कण्ठ से लगा लिया और उसकी सराहना करते हुये कहा, ‘‘धन्य हो बेटा तुम! जिसके मन में यह कामना है कि अपने को कष्ट देने वाले की भी दुर्गति न हो।’’

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